शनिवार, 28 जुलाई 2007

जब नयी राह चलने लगे ......


जीवन के इक मोड़ पर,
जब नयी राह चलने लगे
तेरी आँखों के चिराग
इस दिल मे जलने लगे ।


दर्द जो तूने दिया,
उसके लिये तेरा शुक्रिया
अब तो अपने जिस्म में
कई रंग घुलने लगे ।


मुरझा रहे इस पेड़ को
तूने दिया जो गंगाजल,
अब तो अपने चारों तरफ
फूल ही फूल खिलने लगे ।


बारिशों के मौसम में
तुम भी बरसे इस तरह
पुराने ज़ख्मों के दाग सब
अब धीरे धीरे धुलने लगे .

शनिवार, 21 जुलाई 2007

दर्द के समन्दर में.......


( १)॰
चाहत के पुष्प चढाये हमने
पीड़ाओं के मन्दिर में
फिरते रहे तेरी परछाई खोजते
आकांक्षाओं के खण्डहर में
कई बार डूबकर देखा हमने
विरह की गहराईयों में
मिला न कोई हीरा-मोती
इस दर्द के समन्दर में ॰॰॰॰॰॰


(२)॰
यह यातनाओं का सफर
और लम्बे चौड़े फ़ासले
लँगडाकर चलते है अब तो
दुःख- दर्द के ये क़ाफिले
ढोयेंगी कब तक हमें
साँसों की बैसाखियाँ
क्यों नही अब टूट जाते
हसरतों के ये सिलसिले ॰॰॰॰

(३)॰
तेरे सूखे वादों से
दिल की धरती हुई न नम
बिन रिमझिम के निकल गया
इंतज़ार का यह मौसम
ठंडी हवा भी बंद हो गई
राह चलते अब जलते हैं
उड़ती धूल अब अपने सफ़र में
कहीं ज्यादा, कहीं कम ॰॰॰॰ ।

(४)॰
जो पास रहे पत्थर से बनकर
वे कभी न समझें अपना ग़म
कभी न निकली इस सुन्दर साज़ से
कोई लय या कोई सरगम
जल से खाली मेघ थे जो
बारिश की उनसे आस लगाई
सोचें -अब माथा पकड़कर
कितने मूर्ख निकलें हम ॰॰॰॰ ।

शनिवार, 14 जुलाई 2007

यहाँ अँधेरा है ॰॰॰


"अपनी मुस्कुराहटों की रोशनी फैला दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰
हँसती हुई आँखों के दो चिराग जला दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰

बहुत दिनों से इस कमरे में
अमावस का पहरा है
अपने चमकते चेहरे से इसे जगमगा दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰

खिलखिलाते हो, तो होंठों से
फूटती है फूलझड़ियाँ,
अपने सुर्ख होंठों के दो फूल खिला दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰

कहाँ हो, किधर हो, ढूँढता फिरता हूं,
कब से तुम्हे
ज़रा अपनी पद-चाप सुना दो
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰

बेरंग और बुझा सा खो गया हूँ,
गहरे तमस में
आज दीवाली का कोई गीत गुनगुना दो
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰

हँसती हुई आंखों के
दो चिराग जला दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰।"

रविवार, 8 जुलाई 2007

अनोखा जादू.......



"फूल कुछ बोलता नहीं,
लेकिन अपनी सुन्दरता
और अपनी म़हक से
बिना कुछ कहे, बिना कुछ बोले
कितना कुछ कह देता है ।


उस दिन तू जानू
मेरे कमरे में आकर,
चँद पल खडी रही
और धीरे से मुस्करा कर
फिर बिना कुछ बोले
बिना कुछ कहे
चुपके से बाहर निकल गई॰॰॰॰

तेरे जाने के बाद
मैं सोचता रहा
ख़ामोशी का भी अपना
अनोखा जादू होता है
वह मौन रहकर भी
कितना कुछ कह जाती है॰॰॰॰"

मेरे प्रशान्त ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰


"क़तरा-क़तरा बूँद-बूँद
वह भी डरते-डरते
जल्दी जल्दी और थरथराते
भला इस तरह भी कभी,
किसी की प्यास बुझी है ?

तू तो ठाठें मारता सागर है,
खुला-गहरा और विशाल
हंसता-खेलता और खुशहाल
सागर तो बहुत कुछ देता है
उन सबको
जो उससे मोहब्बत करते है ।



क्यों नही ऍक बार
केवल ऍक बार
अपनी लहरों मे लपेट कर
मुझे उन गहराईयों में डुबो देते,
जहाँ से मैं कभी भी
बाहर न निकल सकूँ...



अगर निकलूं
तो इतना भीगकर
कि अगले सात जन्मों तक
कभी किसी के पास
प्यास की शिकायत न करूँ
मेरे प्रशान्त ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰"

(मुझे काव्य क्षैत्र में पहचान दिलाने वाले शख्स का नाम प्रशान्त है और यह कविता मूल रुप से उन्ही को समर्पित है । {डा॰प्रशान्त अग्रवाल उदयपुर के जाने माने स्कीन स्पेशलिस्ट है ।}
दूसरे अर्थों में ये रचना थार के जीवन को दिग्दर्शित करती है, जहाँ रेत के उठते गुबार की तुलना प्रशान्त महासागर से की गई है ।)

सोमवार, 2 जुलाई 2007

मूमल॰॰॰॰॰॰॰॰ एक अहसास




मेरी सबसे अच्छी दोस्त, जिसने मुझे सबसे पहले कलम पकड़कर "लिखना" सिखाया, आज उसकी सातवीं बरसी है ।
आज ही के दिन वर्ष २००० मे एक सड़क दुर्घटना के बाद जोधपुर में उसका निधन हो गया। जब वो हम सभी को छोड़कर जा रही थी, तब उसका हाथ मेरे हाथ मे था । मेरी मूमल॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰


वो जा रही थी,
पर कोई भी ये मानने को तैयार ना था
उसकी साँसों की डोर टूट सी रही थी
उसका अंत सभी को साक्षात् दिख रहा था
पर फिर भी सभी लोग उसके लिये विधि से लड़ रहे थे
जान बचाने वाले जवाब दे चुके थे
पर फिर भी आस की एक किरण बाकी थी
हम उसे बचाने की नाकामयाब कोशिश कर रहे थे
उसका जाना तय था, पर हमें ये मंज़ूर न था
हम उसे किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहते थे
हम उसकी ज़िन्दगी उस उपर वाले से छीन लेना चाहते थे
और जब हमारी ये कोशिश
हमें नाकामयाब होती दिखाई दी
तो हम उसके लिये भीख माँगने लगे थे
जिसने कभी भूलकर भी भगवान का नाम न लिया था
वो भी सारी रंजिशे भूलकर बस राम राम रट रहा था
पर आज शायद आज वहाँ रहम का नामो-निशां न रह गया था
और आखिर वो घडी आ ही गई
उसके जीवन की डोर हमारे हाथों से फिसलती प्रतीत हुई
और अंततः छूट गई
वो आँसुओं का सैलाब जो हम सब की आँखों मे दबा था
यकायक फूट पड़ा
वो जा चुकी थी, हम सबको छोड़कर, इस जहां को छोड़
अमनो-चैन की उस दूसरी दुनिया में
उसके मुख पर वो चिर-परिचित मुस्कान थी
जैसे वो हमारे रोने का परिहास उड़ा रही हो
कितने इत्मीनान से उतार फेंका था, उसने ज़िन्दगी का चोला
और मौत का जामा पहन लिया था
वह पीछे छोड़ गई थी,
एक अजीब सा खालीपन,
"मूमल" एक रिक्तता,
एक सन्नाटा............"

(सात वर्ष पूर्व लिखी श्रद्दान्जलि॰॰॰॰)

रविवार, 1 जुलाई 2007

चाहत के जंगल में...



"यादों की बस्ती, सपनों का आँगन,
शबनम की बिंदिया, कलियों के कंगन

यौवन की रिमझिम, महकी सी रातें,
ये तेरे लिये है, सारी सौगातें।

फूलों से सँवरी, शाखों की बाँहें,
महबूब का गाँव, रँगीन राहें ।

रिश्तों की मेंहदी, करती है बातें,
ख्वाबों का राजा, ले आया बारातें ।

मौसम की मदिरा, बारिश की हँसी,
गजरे की खूशबू, जूडे में फँसी ।

नटखट से बादल, पागल बरसातें,
चाहत के जंगल में लुकछिप मुलाकातें ।

ढलका सा आँचल, उनींदी निगाहें,
साँसों का मधुबन, हम हर रोज़ चाहें ।

हरियाली सुहागिन की, कैसी करामातें ,
पत्तों की झांझर पर नाची प्रभातें ।"