शनिवार, 3 नवंबर 2007
अल्फाज़ तेरे नाम के....
तेरे प्यार के रोशन च़रागों से, ज़िन्दगी का अँधेरा मिटा लूँगा,
ज़हमतें आये चाहे जितनी राहों में, ज़हमतें मैं उठा लूँगा ।।
मेरे दिलो-दिमाग पर नक्श तेरे प्यार का रहेगा सदा,
चश्मा-ए-खूँ मे भी तेरी खातिर शौक से नहा लूँगा ।।
खुशनसीबी समझूँ अपनी या समझूँ तेरी रहनुमाई,
तूने मोहब्बत की मुझसे तेरी उल्फ़त में ये जहाँ लुटा लूँगा ।।
मेरे लफ्ज़ों मे सजे रहेगें सदा, अल्फाज़ तेरे नाम के,
'गर मौत भी भेज दी दर पर तूने, हंस के गले लगा लूँगा ।।
जुस्तज़ू तेरी रहेगी हर लम्हा, मेरे इस वज़ूद को,
तुझसे मिलने की चाह में कदम तूफाँ में भी चला लूँगा ।।
शनिवार, 15 सितंबर 2007
तेरा चेहरा याद आया .....
शनिवार, 1 सितंबर 2007
तू उस बदली की तरह.....
1.)
"बारिश थम चुकी थी
लेकिन कुछ बादल
टूट बिखर कर अभी भी
इधर उधर दौड़ रहे थे ।
मेरी तरह पागल से
एक आवारा बादल ने
पहाड़ की एक सुन्दर चोटी को
अपनी बाँहों में जकड़ लिया ।
आकाश की ओर ताका
तो उसी पल "मनु"
मुझे तेरा ख़याल आया
दिल में मचलती
एक पुरानी मुलाकात के
रंगीन तसव्वुर ने
मेरे मस्तिष्क को पकड़ लिया॰॰॰"
लेकिन कुछ बादल
टूट बिखर कर अभी भी
इधर उधर दौड़ रहे थे ।
मेरी तरह पागल से
एक आवारा बादल ने
पहाड़ की एक सुन्दर चोटी को
अपनी बाँहों में जकड़ लिया ।
आकाश की ओर ताका
तो उसी पल "मनु"
मुझे तेरा ख़याल आया
दिल में मचलती
एक पुरानी मुलाकात के
रंगीन तसव्वुर ने
मेरे मस्तिष्क को पकड़ लिया॰॰॰"
2.)
"कभी कभी तो तू भी
उस बदली की तरह
मनचली सी हो जाती हो
जिसमें पानी न हो
उस बदली की तरह
जो सूखे खेतों को
अपना चेहरा दिखाकर
उन्हे चँद बून्दों के लिये
भरमा तरसा कर
आकाश में इधर उधर
फिसल जाती हो
और बिना बरसे ही
धीरे से निकल जाती हो॰॰॰॰॰॰।"
"कभी कभी तो तू भी
उस बदली की तरह
मनचली सी हो जाती हो
जिसमें पानी न हो
उस बदली की तरह
जो सूखे खेतों को
अपना चेहरा दिखाकर
उन्हे चँद बून्दों के लिये
भरमा तरसा कर
आकाश में इधर उधर
फिसल जाती हो
और बिना बरसे ही
धीरे से निकल जाती हो॰॰॰॰॰॰।"
रविवार, 19 अगस्त 2007
दर्द अपने अपने......
जीवन संग्राम में जूझते,
संघर्ष करते लोग
कभी रोते कभी हँसते
कभी मर मर जीते लोग ।
कभी सीनों में धड़कती
उम्मीदों की हलचल,
कभी बनते कभी टूटते
दिलों में ताजमहल ।
पत्थर जैसी परिस्थितियों के
बनते रहे पहाड़
भविष्य उलझा पड़ा है जैसे
काँटे- काँटे झाड़ ।
चेहरे पर अंकित अब
पीड़ा की अमिट प्रथा
हर भाषा में लिखी हुई
यातनाओं की कथा ।
जोश उबाल और आक्रोश
सीने में पलते हर दम
चुप चुप ह्रदय में उतरते
सीढी सीढी ग़म ।
दर्द की सूली पर टँगा
आज किसान औ' मज़दूर
है सबके हिस्से आ रहे
ज़ख्म और ऩासूर ।
महबूबा से बिछुड़ा प्रेमी
खड़ा है शाम ढ़ले
ग़मों का स़हरा बाँधकर
विरह की आग जले ।
कहीं निःसहाय विधवा सी
ठंडी ठंडी आह
कहीं बवंडर से घिरी सुहागिन
ढूँढे अपनी राह ।
आँगन में बैठी माँ बेचारी
दुःख से घिरी हर सू
भूख से बच्चे रो रहे
क़तरा क़तरा आँसू ।
बोझल बोझल है ज़िन्दगी
टुकड़े टुकड़े सपने
यहाँ तो बस पी रहे सभी
केवल दर्द अपने अपने ।।"
शनिवार, 11 अगस्त 2007
शनिवार, 4 अगस्त 2007
वह, मन सताये.........
अन्धेरी रात में
सफेद लिबास में
दुधिया रोशनी फैलाती
वातावरण मधुर बनाती
वह, मन सताये,
मुझको सताये ।
सफेद लिबास में
दुधिया रोशनी फैलाती
वातावरण मधुर बनाती
वह, मन सताये,
मुझको सताये ।
अधरों से अपने रस बरसाती
गालों की गुलाबी दर्शाती
झील सी नीली आँखें टमकाती
काली घटाओं सी लट लटकाती
वह, मन सताये,
मुझको सताये ।
कोमल अपने कदम बढाती
छम छम पायल बजाती
पतली अपनी कमर लचकाती
नख-शिख सौन्दर्य को दर्शाती
वह, मन सताये,
मुझको सताये ।
कोयल सी आवाज़ में गाती
प्यारी सी मुस्कान फैलाती
वातावरण में झंकार बजाती
आँखों से ओझल हो जाती
वह, मन सताये,
मुझको सताये ।
शनिवार, 28 जुलाई 2007
जब नयी राह चलने लगे ......
जीवन के इक मोड़ पर,
जब नयी राह चलने लगे
तेरी आँखों के चिराग
इस दिल मे जलने लगे ।
जब नयी राह चलने लगे
तेरी आँखों के चिराग
इस दिल मे जलने लगे ।
दर्द जो तूने दिया,
उसके लिये तेरा शुक्रिया
अब तो अपने जिस्म में
कई रंग घुलने लगे ।
मुरझा रहे इस पेड़ को
तूने दिया जो गंगाजल,
अब तो अपने चारों तरफ
फूल ही फूल खिलने लगे ।
बारिशों के मौसम में
तुम भी बरसे इस तरह
पुराने ज़ख्मों के दाग सब
अब धीरे धीरे धुलने लगे .
शनिवार, 21 जुलाई 2007
दर्द के समन्दर में.......
( १)॰
चाहत के पुष्प चढाये हमने
पीड़ाओं के मन्दिर में
फिरते रहे तेरी परछाई खोजते
आकांक्षाओं के खण्डहर में
कई बार डूबकर देखा हमने
विरह की गहराईयों में
मिला न कोई हीरा-मोती
इस दर्द के समन्दर में ॰॰॰॰॰॰
(२)॰
यह यातनाओं का सफर
और लम्बे चौड़े फ़ासले
लँगडाकर चलते है अब तो
दुःख- दर्द के ये क़ाफिले
ढोयेंगी कब तक हमें
साँसों की बैसाखियाँ
क्यों नही अब टूट जाते
हसरतों के ये सिलसिले ॰॰॰॰
(३)॰
तेरे सूखे वादों से
दिल की धरती हुई न नम
बिन रिमझिम के निकल गया
इंतज़ार का यह मौसम
ठंडी हवा भी बंद हो गई
राह चलते अब जलते हैं
उड़ती धूल अब अपने सफ़र में
कहीं ज्यादा, कहीं कम ॰॰॰॰ ।
(४)॰
जो पास रहे पत्थर से बनकर
वे कभी न समझें अपना ग़म
कभी न निकली इस सुन्दर साज़ से
कोई लय या कोई सरगम
जल से खाली मेघ थे जो
बारिश की उनसे आस लगाई
सोचें -अब माथा पकड़कर
कितने मूर्ख निकलें हम ॰॰॰॰ ।
चाहत के पुष्प चढाये हमने
पीड़ाओं के मन्दिर में
फिरते रहे तेरी परछाई खोजते
आकांक्षाओं के खण्डहर में
कई बार डूबकर देखा हमने
विरह की गहराईयों में
मिला न कोई हीरा-मोती
इस दर्द के समन्दर में ॰॰॰॰॰॰
(२)॰
यह यातनाओं का सफर
और लम्बे चौड़े फ़ासले
लँगडाकर चलते है अब तो
दुःख- दर्द के ये क़ाफिले
ढोयेंगी कब तक हमें
साँसों की बैसाखियाँ
क्यों नही अब टूट जाते
हसरतों के ये सिलसिले ॰॰॰॰
(३)॰
तेरे सूखे वादों से
दिल की धरती हुई न नम
बिन रिमझिम के निकल गया
इंतज़ार का यह मौसम
ठंडी हवा भी बंद हो गई
राह चलते अब जलते हैं
उड़ती धूल अब अपने सफ़र में
कहीं ज्यादा, कहीं कम ॰॰॰॰ ।
(४)॰
जो पास रहे पत्थर से बनकर
वे कभी न समझें अपना ग़म
कभी न निकली इस सुन्दर साज़ से
कोई लय या कोई सरगम
जल से खाली मेघ थे जो
बारिश की उनसे आस लगाई
सोचें -अब माथा पकड़कर
कितने मूर्ख निकलें हम ॰॰॰॰ ।
शनिवार, 14 जुलाई 2007
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰
"अपनी मुस्कुराहटों की रोशनी फैला दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰
हँसती हुई आँखों के दो चिराग जला दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰
बहुत दिनों से इस कमरे में
अमावस का पहरा है
अपने चमकते चेहरे से इसे जगमगा दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰
खिलखिलाते हो, तो होंठों से
फूटती है फूलझड़ियाँ,
अपने सुर्ख होंठों के दो फूल खिला दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰
कहाँ हो, किधर हो, ढूँढता फिरता हूं,
कब से तुम्हे
ज़रा अपनी पद-चाप सुना दो
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰
बेरंग और बुझा सा खो गया हूँ,
गहरे तमस में
आज दीवाली का कोई गीत गुनगुना दो
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰
हँसती हुई आंखों के
दो चिराग जला दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰।"
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰
हँसती हुई आँखों के दो चिराग जला दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰
बहुत दिनों से इस कमरे में
अमावस का पहरा है
अपने चमकते चेहरे से इसे जगमगा दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰
खिलखिलाते हो, तो होंठों से
फूटती है फूलझड़ियाँ,
अपने सुर्ख होंठों के दो फूल खिला दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰
कहाँ हो, किधर हो, ढूँढता फिरता हूं,
कब से तुम्हे
ज़रा अपनी पद-चाप सुना दो
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰
बेरंग और बुझा सा खो गया हूँ,
गहरे तमस में
आज दीवाली का कोई गीत गुनगुना दो
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰
हँसती हुई आंखों के
दो चिराग जला दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰।"
रविवार, 8 जुलाई 2007
अनोखा जादू.......
"फूल कुछ बोलता नहीं,
लेकिन अपनी सुन्दरता
और अपनी म़हक से
बिना कुछ कहे, बिना कुछ बोले
कितना कुछ कह देता है ।
लेकिन अपनी सुन्दरता
और अपनी म़हक से
बिना कुछ कहे, बिना कुछ बोले
कितना कुछ कह देता है ।
उस दिन तू जानू
मेरे कमरे में आकर,
चँद पल खडी रही
और धीरे से मुस्करा कर
फिर बिना कुछ बोले
बिना कुछ कहे
चुपके से बाहर निकल गई॰॰॰॰
तेरे जाने के बाद
मैं सोचता रहा
ख़ामोशी का भी अपना
अनोखा जादू होता है
वह मौन रहकर भी
कितना कुछ कह जाती है॰॰॰॰"
मेरे प्रशान्त ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
"क़तरा-क़तरा बूँद-बूँद
वह भी डरते-डरते
जल्दी जल्दी और थरथराते
भला इस तरह भी कभी,
किसी की प्यास बुझी है ?
तू तो ठाठें मारता सागर है,
खुला-गहरा और विशाल
हंसता-खेलता और खुशहाल
सागर तो बहुत कुछ देता है
उन सबको
जो उससे मोहब्बत करते है ।
वह भी डरते-डरते
जल्दी जल्दी और थरथराते
भला इस तरह भी कभी,
किसी की प्यास बुझी है ?
तू तो ठाठें मारता सागर है,
खुला-गहरा और विशाल
हंसता-खेलता और खुशहाल
सागर तो बहुत कुछ देता है
उन सबको
जो उससे मोहब्बत करते है ।
क्यों नही ऍक बार
केवल ऍक बार
अपनी लहरों मे लपेट कर
मुझे उन गहराईयों में डुबो देते,
जहाँ से मैं कभी भी
बाहर न निकल सकूँ...
अगर निकलूं
तो इतना भीगकर
कि अगले सात जन्मों तक
कभी किसी के पास
प्यास की शिकायत न करूँ
मेरे प्रशान्त ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰"
(मुझे काव्य क्षैत्र में पहचान दिलाने वाले शख्स का नाम प्रशान्त है और यह कविता मूल रुप से उन्ही को समर्पित है । {डा॰प्रशान्त अग्रवाल उदयपुर के जाने माने स्कीन स्पेशलिस्ट है ।}
दूसरे अर्थों में ये रचना थार के जीवन को दिग्दर्शित करती है, जहाँ रेत के उठते गुबार की तुलना प्रशान्त महासागर से की गई है ।)
सोमवार, 2 जुलाई 2007
मूमल॰॰॰॰॰॰॰॰ एक अहसास
मेरी सबसे अच्छी दोस्त, जिसने मुझे सबसे पहले कलम पकड़कर "लिखना" सिखाया, आज उसकी सातवीं बरसी है ।
आज ही के दिन वर्ष २००० मे एक सड़क दुर्घटना के बाद जोधपुर में उसका निधन हो गया। जब वो हम सभी को छोड़कर जा रही थी, तब उसका हाथ मेरे हाथ मे था । मेरी मूमल॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
वो जा रही थी,
पर कोई भी ये मानने को तैयार ना था
उसकी साँसों की डोर टूट सी रही थी
उसका अंत सभी को साक्षात् दिख रहा था
पर फिर भी सभी लोग उसके लिये विधि से लड़ रहे थे
जान बचाने वाले जवाब दे चुके थे
पर फिर भी आस की एक किरण बाकी थी
हम उसे बचाने की नाकामयाब कोशिश कर रहे थे
उसका जाना तय था, पर हमें ये मंज़ूर न था
हम उसे किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहते थे
हम उसकी ज़िन्दगी उस उपर वाले से छीन लेना चाहते थे
और जब हमारी ये कोशिश
हमें नाकामयाब होती दिखाई दी
तो हम उसके लिये भीख माँगने लगे थे
जिसने कभी भूलकर भी भगवान का नाम न लिया था
वो भी सारी रंजिशे भूलकर बस राम राम रट रहा था
पर आज शायद आज वहाँ रहम का नामो-निशां न रह गया था
और आखिर वो घडी आ ही गई
उसके जीवन की डोर हमारे हाथों से फिसलती प्रतीत हुई
और अंततः छूट गई
वो आँसुओं का सैलाब जो हम सब की आँखों मे दबा था
यकायक फूट पड़ा
वो जा चुकी थी, हम सबको छोड़कर, इस जहां को छोड़
अमनो-चैन की उस दूसरी दुनिया में
उसके मुख पर वो चिर-परिचित मुस्कान थी
जैसे वो हमारे रोने का परिहास उड़ा रही हो
कितने इत्मीनान से उतार फेंका था, उसने ज़िन्दगी का चोला
और मौत का जामा पहन लिया था
वह पीछे छोड़ गई थी,
एक अजीब सा खालीपन,
"मूमल" एक रिक्तता,
एक सन्नाटा............"
(सात वर्ष पूर्व लिखी श्रद्दान्जलि॰॰॰॰)
रविवार, 1 जुलाई 2007
चाहत के जंगल में...
"यादों की बस्ती, सपनों का आँगन,
शबनम की बिंदिया, कलियों के कंगन
यौवन की रिमझिम, महकी सी रातें,
ये तेरे लिये है, सारी सौगातें।
फूलों से सँवरी, शाखों की बाँहें,
महबूब का गाँव, रँगीन राहें ।
रिश्तों की मेंहदी, करती है बातें,
ख्वाबों का राजा, ले आया बारातें ।
मौसम की मदिरा, बारिश की हँसी,
गजरे की खूशबू, जूडे में फँसी ।
नटखट से बादल, पागल बरसातें,
चाहत के जंगल में लुकछिप मुलाकातें ।
ढलका सा आँचल, उनींदी निगाहें,
साँसों का मधुबन, हम हर रोज़ चाहें ।
हरियाली सुहागिन की, कैसी करामातें ,
पत्तों की झांझर पर नाची प्रभातें ।"
मंगलवार, 26 जून 2007
तेरे आँसू.....
रविवार, 24 जून 2007
"रिमझिम बारिश गाँव में....."
कुछ दिनो पहले मानसून पूर्व की पहली बारिश के बाद गाँव में अपने खेतों की ओर जाना हुआ ।महसूस हुआ कि शहर और गाँव में बारिश की रुत कुछ भिन्न होती है .
कविता रात को ही लिखी है और किसी भी प्रकार की काँट-छाँट से मुक्त है। )
सागर से आँधी उठी
थम गयी आकर गाँव में ,
रिमझिम बारिश आ गई
बाँधें घुँघरू पाँव में ।
झोंके आगे निकल गये
पीछे रह गई रेत,
मौसम ने जब सरगम गाई
लहरा उठे सब खेत ।
धरती कहती फसलों से
कोई बात निराली,
समझकर मिट्टी की भाषा
झूम उठी हरियाली ।
जिन फूलों की हमने
चर्चा सुनी हर मुँह,
गिरते-गिरते छोड गये
भीनी-भीनी खुशबू ।
पुराने पेड टूट रहे
यह कैसी रीत चली,
ऐसी रुत मे क्या बोलें
यारों चुप्पी भली ।
आँधियां आती जाती है
बदल बदल कर भेस,
फिर भी जीवित रहता है
मेरा यह गाँव, यह देस ।
शनिवार, 16 जून 2007
ख़त.......
रविवार, 10 जून 2007
सिर्फ आँसू है॰॰॰॰॰
"न जी करता है मुस्कुराने को,
न लब करते है थरथराने को ।
चोट कुछ ऍसी दी है ज़माने ने कि,
आग लगाने का जी करता है ज़माने को।
ठोकरो पर ज़िन्दगी गुज़रती रही,
अपना साथी बना लिया, मैखाने को।
दर्द ही दर्द मेरी बोतल मे है,
क्यूँ मै दोष दूँ किसी पैमाने को।
रास्ते खो गये, मंज़िलें दूर है,
सिर्फ आँसू है आज बरसाने को ।
जो भी आये थे, मेरे हमदर्द बनके,
सारे धोखे थे, प्यार था दिखाने को ।
ये शहर है सारा अजनबियों का,
कौन है यहाँ अब आज़माने को ।
जलता बुझता रहा, बुझता जलता रहा,
कौन आया लगी दिल की बुझाने को ।
चल दे मनु कहीं बेगाना बनके,
आब तेरी नही यहाँ दिखाने को ।"
न लब करते है थरथराने को ।
चोट कुछ ऍसी दी है ज़माने ने कि,
आग लगाने का जी करता है ज़माने को।
ठोकरो पर ज़िन्दगी गुज़रती रही,
अपना साथी बना लिया, मैखाने को।
दर्द ही दर्द मेरी बोतल मे है,
क्यूँ मै दोष दूँ किसी पैमाने को।
रास्ते खो गये, मंज़िलें दूर है,
सिर्फ आँसू है आज बरसाने को ।
जो भी आये थे, मेरे हमदर्द बनके,
सारे धोखे थे, प्यार था दिखाने को ।
ये शहर है सारा अजनबियों का,
कौन है यहाँ अब आज़माने को ।
जलता बुझता रहा, बुझता जलता रहा,
कौन आया लगी दिल की बुझाने को ।
चल दे मनु कहीं बेगाना बनके,
आब तेरी नही यहाँ दिखाने को ।"