रविवार, 8 जुलाई 2007

मेरे प्रशान्त ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰


"क़तरा-क़तरा बूँद-बूँद
वह भी डरते-डरते
जल्दी जल्दी और थरथराते
भला इस तरह भी कभी,
किसी की प्यास बुझी है ?

तू तो ठाठें मारता सागर है,
खुला-गहरा और विशाल
हंसता-खेलता और खुशहाल
सागर तो बहुत कुछ देता है
उन सबको
जो उससे मोहब्बत करते है ।



क्यों नही ऍक बार
केवल ऍक बार
अपनी लहरों मे लपेट कर
मुझे उन गहराईयों में डुबो देते,
जहाँ से मैं कभी भी
बाहर न निकल सकूँ...



अगर निकलूं
तो इतना भीगकर
कि अगले सात जन्मों तक
कभी किसी के पास
प्यास की शिकायत न करूँ
मेरे प्रशान्त ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰"

(मुझे काव्य क्षैत्र में पहचान दिलाने वाले शख्स का नाम प्रशान्त है और यह कविता मूल रुप से उन्ही को समर्पित है । {डा॰प्रशान्त अग्रवाल उदयपुर के जाने माने स्कीन स्पेशलिस्ट है ।}
दूसरे अर्थों में ये रचना थार के जीवन को दिग्दर्शित करती है, जहाँ रेत के उठते गुबार की तुलना प्रशान्त महासागर से की गई है ।)

4 टिप्‍पणियां:

शैलेश भारतवासी ने कहा…

सीख और सहारा देनेवालों से हर व्यक्ति की यही माँग रहती है। और यह स्वभाविक भी है क्योंकि वो अपने दुःख का स्थाई समाधान नहीं है। मगर कवि इतना प्रैक्टिकल तो है कि वो जन्म-जन्म तक का समाधान न माँगकर ७ जन्मों के समाधान पाकर संतुष्ट है। '
आपने थार की महानता की भी एक नई व्याख्या की है। बहुत खूब

रंजू भाटिया ने कहा…

bahut sundar ji

सुनीता शानू ने कहा…

अच्छी रचना है सागर जैसी गहराई है काव्य में...
"क़तरा-क़तरा बूँद-बूँद
वह भी डरते-डरते
जल्दी जल्दी और थरथराते
भला इस तरह भी कभी,
किसी की प्यास बुझी है ?
बहुत सुंदर
बधाई!

सुनीता(शानू)

hdadhich ने कहा…

apaki kavati so nice