शनिवार, 21 जुलाई 2007

दर्द के समन्दर में.......


( १)॰
चाहत के पुष्प चढाये हमने
पीड़ाओं के मन्दिर में
फिरते रहे तेरी परछाई खोजते
आकांक्षाओं के खण्डहर में
कई बार डूबकर देखा हमने
विरह की गहराईयों में
मिला न कोई हीरा-मोती
इस दर्द के समन्दर में ॰॰॰॰॰॰


(२)॰
यह यातनाओं का सफर
और लम्बे चौड़े फ़ासले
लँगडाकर चलते है अब तो
दुःख- दर्द के ये क़ाफिले
ढोयेंगी कब तक हमें
साँसों की बैसाखियाँ
क्यों नही अब टूट जाते
हसरतों के ये सिलसिले ॰॰॰॰

(३)॰
तेरे सूखे वादों से
दिल की धरती हुई न नम
बिन रिमझिम के निकल गया
इंतज़ार का यह मौसम
ठंडी हवा भी बंद हो गई
राह चलते अब जलते हैं
उड़ती धूल अब अपने सफ़र में
कहीं ज्यादा, कहीं कम ॰॰॰॰ ।

(४)॰
जो पास रहे पत्थर से बनकर
वे कभी न समझें अपना ग़म
कभी न निकली इस सुन्दर साज़ से
कोई लय या कोई सरगम
जल से खाली मेघ थे जो
बारिश की उनसे आस लगाई
सोचें -अब माथा पकड़कर
कितने मूर्ख निकलें हम ॰॰॰॰ ।

8 टिप्‍पणियां:

शैलेश भारतवासी ने कहा…

आपके इन चारों पुष्पों में आपका गहन चिंतन दृष्टिगोचर हो रहा है। बिलकुल प्रवाहमई कविताएँ हैं। आपका लेखन प्रबुद्ध हुआ है। इसी प्रकार से प्रयास करते रहिए।

Unknown ने कहा…

bhut acchi lagi charo kavitaye.
dard ke samandar me bhi anand aa gaya.
ek baat bataye ki itna dard likhte time aap rajasthan ki paintings hi kyo lagate ho ?
sari kavitaye acchi lagi.

गौरव सोलंकी ने कहा…

पहले तीन दिल को छू गए...
बहुत सुन्दर लिखा मनु जी..
बधाई।

बेनामी ने कहा…

जल से खाली मेघ थे जो
बारिश की उनसे आस लगाई
सोचें -अब माथा पकड़कर
कितने मूर्ख निकलें हम ॰॰॰॰

तेरे सूखे वादों से
दिल की धरती हुई न नम
बिन रिमझिम के निकल गया
इंतज़ार का यह मौसम

मनु जी.. हर पंक्ति गजब की है.. दिल को छू जाती हैं..क्या टिप्पणी करूँ समझ नहीं आ रहा..
आपके इन शब्दों के समंदर में दर्द ही दर्द है..

बेनामी ने कहा…

वाह!!!

आर्य मनुजी आपकी चारो ही रचनाएँ बेहद पसंद आयी। बधाई स्वीकार करें।

सस्नेह,

- गिरिराज जोशी "कविराज"

ख्वाब है अफसाने हक़ीक़त के ने कहा…

bahut khoob bandhu, chaaro rachnaayen bahut hi achhi bani hain...

KIRAN SHARMA ने कहा…

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bye

Sambhav ने कहा…

आपकी चारो ही रचनाएँ बेहद पसंद आयी।.......
प्रयास करते रहिए। .............
बधाई