कभी- कभी मै खुद नही समझ पाता कि मै कौन हूँ, क्या हूँ ।
गीली मिट्टी में घरौंदा बनाने मे उलझा,
गीली मिट्टी में घरौंदा बनाने मे उलझा,
मिट्टी पर कदमों के निशान छोडकर,
तुम्हारे बहुत दूर निकल जाने पर,
अपना मन सँभाले,
उन कदमों पर कदम धरता,
हाँफता- दौडता तुम्हे ढूँढता शायद मैं ही था ।
या तुम्हारी स्मृति मे खोया मै ही हूँ।
दरवाज़े की ऒट मे खडा उदास, निराश,
तुम्हारे बहुत दूर निकल जाने पर,
अपना मन सँभाले,
उन कदमों पर कदम धरता,
हाँफता- दौडता तुम्हे ढूँढता शायद मैं ही था ।
या तुम्हारी स्मृति मे खोया मै ही हूँ।
दरवाज़े की ऒट मे खडा उदास, निराश,
निर्निमेष पलकों से झाँकता भी मैं ही था॰॰॰॰॰॰
1 टिप्पणी:
हिन्दी चिट्ठाकारी शुरू कर दी है न अब सब समझ में आ जायगा :-)
एक टिप्पणी भेजें