रविवार, 10 जून 2007




कभी- कभी मै खुद नही समझ पाता कि मै कौन हूँ, क्या हूँ ।
गीली मिट्टी में घरौंदा बनाने मे उलझा,


मिट्टी पर कदमों के निशान छोडकर,
तुम्हारे बहुत दूर निकल जाने पर,
अपना मन सँभाले,
उन कदमों पर कदम धरता,
हाँफता- दौडता तुम्हे ढूँढता शायद मैं ही था ।
या तुम्हारी स्मृति मे खोया मै ही हूँ।
दरवाज़े की ऒट मे खडा उदास, निराश,


निर्निमेष पलकों से झाँकता भी मैं ही था॰॰॰॰॰॰


1 टिप्पणी:

उन्मुक्त ने कहा…

हिन्दी चिट्ठाकारी शुरू कर दी है न अब सब समझ में आ जायगा :-)